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Thursday, November 15, 2012

वास्तु शास्त्र ओर दक्षिण दिशा       ( Part-3 )

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पिछले लेख को आगे बढाते हुए कुछः और बिन्दुओ को आपके सामने राखति हुं।

दक्षिण दिशा की तरफ़् कम से कम खिडकी व दरवाजा रखे। दक्षिण कि तरफ़् वास्तु देवता का बाया सीना, बाया फ़ेफ़्द तथा गुर्दा होता है। दक्षिण दिशा मे दोष होने पर शरीर के इस अंगो मे खराबी उत्पन्न हो जाती है। पत्थर या कच्हि मित्ति का बन्दर मुख्य दरवाजे या ड्राइंग रुममे लगाना चाहिये ।
...
नींद के लिये दक्षिण दिशा बहुत् ही अछ्हि होती है क्युंकी इस दिशा कि गर्मी हमे रात होते होते सोने के लिये मजबूर कर देती है।

दक्षिण दिशा मे रेह्ने वालों को आपने घरो मे खासकर गर्मी के दिनों मे दक्षिण दिशा कि सभी खिडकी और दरवाजों को बन्द रखना चाहिये।

अगर आपका घर दक्षिणमुखी है तो बच्चो के पढने-लिखने के लिये मकान के वायव्य कोण मे स्थित कमरा अधिक उपर्युक्त होगा। रसोइ घर के स्टोर के लिये दक्षिण दिशा कि तरफ़् बने कमरे का प्रयोग मे लाये। सोने के लिये पश्चिम दिशा तथा दक्षिण दिशा के कोने मे स्थित कमरा सोने के लिये उपर्युक्त होता है। वायव्य कोण मे 'स्फ़तिक् टेकं' बनाये।

पश्चिम दिशा मे शौचालय तथा स्नानघर को संयुक्त रूप से बनवा सकते है। ईशान कोण मे ज्यादा से ज्यादा खिड्कियों का निर्मान कराये।

घर के बडे - बुढों को दक्षिण पश्चिम मे स्थित कमरे मे सोना चाहिये। यहां अधेड तथा बुढे व्यक्ति को सूलझने से उनका बुढापा कष्टकारी नही लगता। जीवन सुखपुर्वक बीतता है।

दक्षिण मुखी मकान या मार्केट मे होट्ल, हारड्वेयर कि दुकान, टायर, तेल या रसायन कि दुकान तथा 'ब्युटि पारलर' कि दुकानो का करना ज्यादा शुभ माना जाता है।

रसोइ घर, पानी कि टंकी, शौचालय, मुख्य द्वार कि सही स्थिति पूर्व तथा उत्तरी दिशा के अधिक खाली जगह् छोड्ने से दक्षिण मुखी घर मे भी स्वस्थ सुखी और सयंम जीवन बिताया जा सकता है।


सरिता कुलकर्णी

Saturday, October 20, 2012



वास्तु शास्त्र ओर दक्षिण दिशा      ( Part-2 )
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पिछले लेख मे हमने ये जाना कि दक्षिण दिशा का वास्तुनुसार क्या मेहेत्व और किस प्रकार कि भ्रान्तिया इस बारे मे फ़ैलि हुइ है । अब हम देखेंगे कि इस प्रकार कि त्रुटीयों का निवारन कैसे बिन तोड् फोड के, कम खर्चे मे किया जा सकता है।

1.दक्षिण मुखी भवन मे नैत्रक्त्य कोण (यानि दक्षिण पश्चिम का कोणा) मे दरवाजा होने पर अति विनाशकारी, हत्या, स्त्री कष्ट, मांगलिक कार्यो मे ब...ाधा, आर्थिक कष्ट, भयङ्कर बीमारी का सामना करना पडा है।

2.अगर संभव हो तो तुरन्त इस जगह् से दरवाजे को हटा दे। अगर हटाना संभव न हो तो मुख्य द्वार के उपर आगे पीछे दोनो तरफ़् गणेश जि कि फोटो या चित्र लगाय। दरवाजे के चौखट के नीचे चण्डी का तार लगाय। त्रिशक्ति को भी दरवाजे के दोनो तरफ़् लगा सकते है। पूजा स्थल पर रहू यन्त्र को लगाय, उसकी पूजा करे।

3.अगर दक्षिण दिशा कि तरफ़् उत्तर दिशा से ज्यादा नीचा और अधिक खुला होने पर उच्च रक्तचाप्, पाचन क्रिया मे गडबडी, चोट लगने का भय, खून कि कमी, महिलाए सदा बीमार आर्थिक कष्ट का सामना करना पडता है। इस दोष को जल्द से जल्द दूर करना ठिक रहेगा। इसके लिये दक्षिण दिशा के अन्दर ही बडे बडे भारी पेड लगाए। हो सके तो पत्थर की दीवार बनाये और उस पर लाल रंग की बेल चढायें। दक्षिण दिशा के कोने मे तांबे का झण्डा लगाये जो कि घर से सबसे ऊंचा होना चाहिये।

4.इसके अलावा दक्षिण दिशा की बाहरी दीवार तथा इस दिशा मे स्थित मुख्य दरवाजे को लाल रंग से रंगवाये। पूजा मे हनुमान जि कि उपासना तथा मंगल गृह का जाप् करे। इसके अलावा तंबा पर बने मंगल यन्त्र को दक्षिण दिशा मे स्थित मुख्य दरवाजे के दायि तरफ़् लगाये। अगर दरवाजा न हो तो दीवार पर ही लगाये।

5.अगर दक्षिण दिशा मे कुआ गड्ढा बोरिंग, दीवारों मे दरार पुराने कबाद आदि हो तो घर मे अचानक दुर्घटना, हृदय रोग, जोंडों मे दर्द, खून की कमी, पिलिया आखों की बीमारी हो सकती है। इसके लिये तुरन्त ही गड्ढो को सही करा दे।

6.अगर तुरन्त संभव न हो तो उस पर कागज लगा दे। अगर बोरिंग बंद करना संभव हो तो बोरिंग पाइप को फ़र्श के अंदर से पाइप ले जा कर के ईशान कोण कि तरफ़् पानी को निकाले। दक्षिण दिशा की तरफ़् भारी भारी पतथरो को रखवा दे।दक्षिण दिशा कि तरफ़् जमीन के अन्दर तांबे का तार लगवाना बेहतर होगा।

इसके अलावा और भी कुछः सटीक और सरल उपायो को लेकेर कल फिर एक और लेख आप ही के लिये। आज यहि पर समाप्त करती हुं ।


सरिता कुलकर्णी

Thursday, October 4, 2012


वास्तु शास्त्र ओर दक्षिण दिशा     ( Part-1 )

प्रायः वास्तु के बारे मे हल्का फुल्का ज्ञान रखने वाले दक्षिणमुखी प्लोट् को तुरन्त ही अशुभ बता दिया जाता है। लेकिन ऐसा बिल्कुल नही है, अगर वास्तु नियमो का पालन करते हुए दक्षिण मुखी प्लोट् पर निर्माण कराया जाय तो यह भी शुभ होते है। दक्षिण दिशा के स्वामी धर्म तथा मृत्यु के देवता 'यम' होते है।

दक्षिण दिशा के गृह मंगल है, सूर्य तथा मंगल दोनो ही बहुत् गर्म गृ...ह है और् शक्तिशाली भी। सुरज तथा मंगल दोनो का ही लाल रंग है। सूर्य का ताप और मंगल के लाल रंग से होने वाली गर्मी दक्षिण दिशा को बहुत् ही गर्म बना देती है, जिसके कारण से यह दिशा अशुभ मानी जाती। मौसम तथा जलवायु से ही दिशाओ का प्रभाव शुभाशुभ जाना जाता है। अशुभ करार कर दिये जाने के कारण कैइ है लेकिन तर्करहित। भारत वर्ष मे दक्षिण दिशा मे घोर गरम रेह्ने के कारण इसे अशुभ माना जाता है। जबकि बर्फ़िले तथा थण्डे प्रदेश मे दक्षिण दिशा शुभ मानी जाती है क्योकि उनको कडाके कि सर्दी से बचने के लिये भरपूर धूप दक्षिण दिशा से मिलति है।

उर्जा का प्रवाह् उत्तरी ध्रुव से दक्षिण ध्रुव तक चुम्कीय लेहरो के रूप मे लगातार होता रेह्ता है और वास्तु सिद्धान्त इसी उर्जा के प्रवाह् पर आधारित है। सभी जानते है कि पृथ्वी अपनी धूरि पर २३.५ अंश तक झुकि है जिससे के पूर्व, ईशान भाग नीचे को दबा है तथा तथा नैत्रत्क्य तथा पश्चामि भाग उंचा उठा हुआ है। इसी कारण उत्तर पूर्व तथा ईशान को खुला तथा हल्का रखने को काहा जाता है। दक्षिण, पश्चिम तथा नैत्रत्क्य को भारी रखने को काहा जाता है।

अब हम देखते है कि अगर दक्षिण मुखी प्लोट् के निर्मान तथा आन्तरिक रखरखाव वास्तु नियमो के अनुसार न होने पर क्या क्या तक्लिफ़े हो सकी है और उनका बिना तोड् फोड के निवारन कैसे हो ?
ये हम देखेंगे अगले लेख मे....

सरिता कुलकर्णी

Tuesday, September 25, 2012



किराए का मकान और वास्तु दोष – ३
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जिस प्रकार अब तक हमने ये जानकारी ली की किराए के मकान को भी स्वयं के अनुकूल बनाया जा सकता है. कोई भी स्वेच्छा से किराए के मकान में तो रहना नहीं पसंद करता परन्तु अगर घर का वातावरण सुखद, शुद्ध, प्रेममय प्रसन्न हो तो किराए वाली बात भी गौण हो जाती है.

इन सभी बातो का साधना जीवन में भी तो उतना ही महत्व है..क्युकी किसी भी साधना को करने के लिए सुदृढ़ मानसिक स्थिति, मानसिक बल सकारात्मक वातावरण की अत्यंत आवश्यकता होती है. विगत लेखो में बताई छोटी छोटी सी सुधारणा हमारे मानस को अनुकूल बनाने में सहायक साबित होती है.. इसलिए इन्हें नजरअंदाज नहीं करना चाहिए.

अब बात करते है चित्र व तस्वीर की, देवी देवताओं के चित्र पूर्व-उत्तर दीवार पर ही लगाए. साथ ही संतो, झरनों, समुद्र, नदियों आदि को भी तस्वीर इसी दिशा में लगाये. मृतक संबंधियो के चित्र दक्षिणी दीवार पर लगाये. उनके चित्र याँ तस्वीरे पूजा कक्ष में ना रखे.

ऐसे चित्र जो हिंसा, रोग, मृत्यु आदि दर्शाते हो तो उन्हें लगाने से बचे. दक्षिणी व पश्चिमी दीवारों पर भारी चीजों के चित्र, बड़े व मोटे वृक्ष, पर्वत आदि के चित्र लगाए.

भारी फर्नीचर दक्षिण व पश्चिम दीवार से लगाकर रखे. हलके फर्नीचर उत्तर व् पूर्वी दीवारों से लगाकर रखे जा सकते है. कमरे का मध्य भाग खाली रखे.

हवा का आगमन उत्तरी तथा पूर्वी दिशाओं की खिड़कियो से होता है सो हमेशा खुली रखनी चाहिए क्युकी ये हिस्से धन एवं स्वस्थ्य के घोतक है. इन दिशाओं में हलके परदे तथा दक्षिण व पश्चिम दिशाओं में भारी परदे लागाये.

यदि घर में सिढ़ियाँ दिखाई पड़े तो यह एक प्रकार का वेध है. यहाँ पर दिशाओं के अनुरूप हलके याँ भारी फुल-पौधे लगाकर इस् प्रकार व्यवस्था करनी चाहिए की सिढ़ियाँ प्रथम द्रिती में ना आये.

घर में ध्वनि उर्जा का भी बहुत महत्व है.. घर में लगातार तेज आवाजो से बचे.. घर के सदस्यों से मधुर व धीमी आवाज में बात करे. घर के दरवाजे खिड़किया बहुत जोर से बंद ना करे.

ऊर्जा विज्ञान एक बहुत विस्तृत विषय है. वास्तु के दृष्टिकोण से ऊर्जा विज्ञान अपने आप में एक एसी कड़ी हे जिस से आप मूल दोष तक पहुच सकते है. क्युकी ग्राफ्स, डायग्राम, कोण विचार केवल लेखी रूप से समझने के लिए होते है. परन्तु वास्तु दोष को समझने के लिए आपकी इन्द्रियाँ सक्रिय होना आवश्यक है ऋणात्मक उर्जा और सकारात्मक उर्जा को केवल महसूस ही किया जा सकता है दिखाया नहीं.

हम सभी ने कभी ना कभी ऐसा महसूस किया होगा की जब कभी हम एकदम चकाचक नए बने हुए मंदिरो में जाते हे तो हम साफ़ सफाई, लोगो का हुजूम तो देख लेते हे लेकिन प्राण ऊर्जा को नहीं महसूस कर पाते वही अगर किसी जीर्ण शीर्ण मंदिर में अगर जाए तो वहा अत्यन्त तीव्र रूप से हमें प्राण ऊर्जा का प्रवाह महसूस होता ही है. लेकिन हर जगह हर बार नहीं. ये हमारे मानसिक शक्ति पर बहुत निर्भर करता है.

जब कभी कोई मेहमान हमारे घर आते है तो अपनी सकारत्मक या नकारात्मक भाव के साथ आते है और आते ही साथ कुछ मिनटों में हमारे घर का वातावरण भी कलुषित कर देते है. ऐसे में घर के मुख्य द्वार के पास ही अगर कांच के बर्तन या गिलास में निम्बू डाल कर रखे तो ऋणात्मक स्पंदनो को खिंच कर उसे बेअसर कर देने में सहायक होता है.

उसी प्रकार किसी के घर हम पहली बार जाते है तो कई प्रकार की हवा को महसूस करते है. जैसे घर में किसी का बीमार होना, आपसी मतभेदो के कारण निर्मित ऋणात्मक ऊर्जा, सतत रुदन, उदासीनता उजाडपन, मरघट वातावरण इत्यादि और ये सभी दोष हमें साधना जीवन में भी बाधक बनते है. क्युकी कभी कभी एसी उर्जाये हमारा पीछा नहीं छोडती तो घर की ऊर्जा को संजोए रखना घर के सभी सदस्यों के ही हाथ में है. ऐसे में हम निखिल कवच को शुद्ध यथोचित क्रिया के बाद उच्चार कर ऐसे व्यक्तियों से मिलने जा सकते है जिस से हम इन से बचे रहे या उनके घर आने के पहले पठन  कर सुरक्षित हो सकते है क्युकी मेहमानो के जाने के बाद भी असर बना रहता ना कुछ समय.
 

सरिता कुलकर्णी



Thursday, September 20, 2012



किराए का मकान और वास्तु दोष – २
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जिस प्रकार हमने कुछ वास्तु के आधारभूत तथ्य के बारे में जाना उसी प्रकार अब थोडा और गहराई से कुछ बातो को समझे. और उन सावधानियो को अगर हम अपने जीवन में थोडा स्थान दे और अमल करते हे तो निश्चित फायदा हो सकता है. कमसेकम नुक्सान तो नहीं होगा.. हमारे कितने ऐसे परिचित हे जो वास्तू तज्ञ की बातो में आकार ढेर सारा रूपया खर्च कर देते हे जिस में से अधिकांश  हिस्सा तो उनकी बड़ी सी फीस में ही चला जाता है. और समय बीतता जाता है और कोई परिणाम हाथ नहीं आता तो क्यों ना हम इन छोटे छोटे टिप्स को आजमा कर देखे....

 मुख्य द्वार – घर का मुख्य द्वार सबसे महत्वपूर्ण है. घर से निकलना, वापस आना इत्यादि दिन के कार्य मनुष्य के जीवन में उर्जा के भंडार होते है. ये सकारात्मक या नकारात्मक दोनों हो सकते है. मान लीजिए आपका प्रवेश द्वार दक्षिण-पूर्व का पूर्व या दक्षिण-पश्चिम का दक्षिण है. यह स्थिति शुभ नहीं है.. फिर क्या करे? मुख्य द्वार से ३ फिट दूर ६ फिट ऊँची लकड़ी की एक स्क्रीन इस् तरह लगाये की प्रवेश करते समय आप दाई तरफ घुमे व् घर में उत्तर पूर्व या दक्षिण पूर्व के दक्षिण से प्रवेश करे.

रसोई घर – घर में रसोई घर जिस भी कमरे है यह व्यवस्था करे की कमरे के दक्षिण पूर्व में चूल्हा व् सिलिंडर हो. खाना बनाने वाला पूर्व की ओर मुख करके खाना बनाये. पूर्वी दीवार के कोने पर एक दर्पण लगा ले.

जल – पानी रखने का पात्र आदि उत्तर, उत्तर-पूर्व में रखे. ईशान कोण साफ़ सुथरा रहे. इस् बात का ध्यान रखे की अग्नि व् जल बहुत नजदीक न हो.

शौचालय – शौचालय का सही स्थान पर होना आवश्यक है. यह ‘वायव्य’ में हो तो सर्वोत्तम है. पूर्व व् उत्तर में नहीं होना चाहिए. यदि आपका शौचालय ऐसा स्थित हो तो इस् दिशा में उत्तरी या पूर्व दीवार पर एक दर्पण लगाये.

बच्चों का कमरा – बच्चों को पूर्व या पश्चिम के कमरे दिए जा सकते है. बच्चे उत्तर या पूर्व की ओर मुख करके पढाई करे. उनके कमरे में अनावश्यक चीजे न राखी जाए. इस् कमरे का उत्तर-पश्चिम (वायव्य) खाली रखा जाए. ज्ञान क्षेत्र (उत्तर-पूर्व) में दर्पण लगाकर सक्रीय कर दे. बच्चे इस् तरह सोये की प्रातः उठने पर उन्हें सर्वप्रथम उर्जा क्षेत्र (उत्तर या पूर्व) देखने को मिले.


सरिता कुलकर्णी

Wednesday, September 12, 2012

Graha Mala Series : Chandra

गृह माला / भाग 1

चन्द्र गृह

शिवरात्री के पवन अवसर पर चन्द्र गृह के बारे में

चन्द्रमा एक प्रकार से काल पुरुष का ह्रदय है. ह्रदय की समस्त वृत्तियों, विकारों एवं प्रभावों का अध्ययन चन्द्रमा के द्वारा संभव है. जिस प्रकार मन चंचल है ठीक उसी प्रकार चन्द्र भी समस्त ग्रहों में सर्वाधिक चंचल एवं शीघ्रगामी है. मात्र ढाई दिन में ही राशि बदलने वाले चन्द्रमाँ के लिए कहा गया है -

                                                                               स्वक्षः प्राज्ञौ: गौरश्चपलः        
                                                                               काफ वातिको रुधिरसारः . 
                                                                               मृदुवाणी प्रिय सखास्तनु
                                                                                  व्रुत्तश्चन्द्रमाः हाशु:

अर्थात सुन्दर नेत्र वाला, बुद्धिमान, गौर वर्ण, चपल स्वाभाव, चंचल प्रकृति, काफ और वात प्रकृति प्रधान, मधुर वाणी बोलने वाले, मित्र पर न्योछावर होने वाला और दीर्घ शरीर वाला एसा चन्द्रमा होता है...
आहा रात्रि काल में चन्द्रमा को देखना कितना सुखद एहसास हे.. अपने जीवन में हर किसी ने इस एहसास को जिया होगा कभी न कभी. प्रेम का कारक चन्द्र मातृप्रेम का आविष्कार करने वाला जल तत्त्व का स्त्री गृह हे. चन्द्र ये स्नेही, कुटुंब वत्सल और चंचल हे. इस गृह में सेवाभावी वृत्ति हे. मन का कारक चन्द्र हव्यासी हे मोह, माया, आसक्ति, संसारिकता,कल्पना शक्ति का कारक हे. चन्द्र गृह बाल्यावस्था का कारक मन गया हे. आयु के ८-१० साल तक चन्द्र गृह का अमल होता हे. इसी कारण छोटे बालको की कुंडली में चन्द्र महत्त्वपूर्ण माना गया हे. चन्द्र सुख दुःख, हव्यास समाधान, मनः शांती इनका करक है. इसी कारान चन्द्र गृह से ही जातक या व्यक्ति की तृप्तता व निद्रा निर्भर करती है.

मनुष्यों में रमने वाला चन्द्र रिश्तो को संभालना और उसे अंतिम तक निभाने की प्रेरणा देता हे. क्युकी मन चन्द्र के अंतर्गत आता हे... चन्द्र केवल अपने निकट व्यक्तियों पर स्नेह करते हे, अपने ही मनोराज्य में रमने वाले उत्तम कल्पना शक्ति दायक होते हे. उनका अपना अलग ही विश्व होता हे चन्द्र प्रधान व्यक्ति अपने ही धुन में रहते हे और इसी कारण इन्हें वास्तविक का आभास कम होता हे. अपने ही धुन में रहने के कारण वास्तिविकता का बोध कम होता है और परिपक्वता भी कम होती है. इसी कारण बच्चो में ज्यादा रम जाते हे. मात्रु सुख का कारक चन्द्र से माता का विचार किया जाता है.

पाकगृह में रमने वाले चन्द्र गृह जो स्त्री तत्त्व प्रधान है उन्हें खानेपीने की, खाद्यपदार्थ बनाने की और दुसरो खिलाने की अभिरुचि होती है. स्थितिया हो न हो लेकिन आवभगत से चूकते नहीं. चन्द्र ग्रह वास्तु का, रहते घर का कारक है. इसीलिए वास्तु योग में ये महत्वपूर्ण साबित होते है. चन्द्र गृह जलीय पदार्थ, जलाशय इनका कारक है. इसी कारण जल के छोटे कूपक, तालाब, टंकिया, दूध, दुग्ध्जन्य पदार्थ, जलाशय पर अमल रखते है. चन्द्र वनस्पति का भी कारक है. इसीलिए आयुर्वेद का भी कारक हुआ. जडीबुटीया भी तो कितनी नाजुक होती हे ठीक हमारे मन की तरह..है न..इसीलिए भी चन्द्र का अमल होता है. बाग़ बगीचे, खेती भी चन्द्र पर से देखि जाती हे कुंडली में. जितनी भी नाशवंती चीजे हे जैसे सब्जीया, फल, फुल, पका हुआ अन्ना सब इन्ही के अमल में आता हे.

शरीरशास्त्र अनुसार चन्द्र मन और इच्छाशक्ति का कारक है. साधनाओ में भाव का कारक भी मन ही तो है. फिर चाहे वो मंत्र साधना हो या तंत्र साधना. स्त्रीयों का मासिक धर्मं, उनसे सम्बंधित सभी विकार चन्द्र के अंतर्गत आते है. रक्त का कारक होने के कारण हीमोग्लोबिन का कम होना, त्वचाविकार, किडनी विकार, मूत्र विकार, पाचन संस्था, मानसिक विकार ये सभी चन्द्र के क्षेत्र में आते है. आरोग्य का विचार करते हुए चन्द्र नेत्र के कारक है. नेत्र दोष, अंधापन, चश्मा लगना ये सब इन्ही के अंतर्गत आते हे.

चन्द्र का बीज गुण है - "मन" और "बोध"
अंकशास्त्र अनुसार अंक - २
रत्ना - मोती
धातु - चांदी
रंग - सफ़ेद, नारंगी
त्रिदोष - वात कफ कारक
स्व राशी - कर्क
नीच राशि - वृश्चिक
उच्च राशि - वृषभ
मित्र गृह - रवि, गुरु, मंगल
सम मित्र गृह - शुक्र, बुध, शनि
शत्रु गृह - रहू, केतु

प्रेम के बीज का प्रस्फुरण करने वाले चन्द्रमा बहुत ही शीतल गृह हे जो आँखों में शीतलता प्रदान करते हे और ह्रदय में प्रेम जगाने वाले है....

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Saturday, September 1, 2012




किराए का माकन और वास्तु दोष - १

वास्तु शास्त्र को सच्चे संदर्भो में ऊर्जा विज्ञान भी कहा जा सकता है. इसे ‘स्थ्पात्यावेद’ भी कहते है. यह शास्त्र मनुष्य को प्रक्रति के अनुरूप चलने के लिए प्रेरित करता है. पंचमहाभूतो – पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु से इस् शरीर का निर्माण हुआ है और यही पञ्च तत्व प्रकृति में भी विद्यमान है. यद्यपि इनके अतिरिक्त अन्य कई ऊर्जा ए तत्व है जो हमारे जीवन को प्रभावित करते है परन्तु आधारभूत तत्व यही पञ्चतत्त्व है.

हमारे यहाँ पहले के ऋषि मुनियों बहुत पहले उन उर्जावान तत्वों की पहचान का ली थी. जिनके उचित समावेश से एक सुव्यवस्थित जीवन जिया जा सकता है. जो लोग किराये के मकान या अपार्टमेंट में रहते है उनके पास दरवाजे, रसोई घर, शौचालय, प्रवेश द्वार आदि को वास्तु के आधार पर परिवर्तित करने के लिए विकल्प नहीं होते है.

भारीपन (गुरुता) – यह पृथ्वी तत्व से संबंधित है.. भारी चीजे दक्षिण, दक्षिण-पश्चिम व पश्चिम में रखी जानी चाहिए..

हल्कापन – यह जल तत्व से सम्बंधित है. हलकी चीजे पूर्व, उत्तर व ईशान (उत्तर –पूर्व) में राखी जाये तो लाभ हो सकता है.
यह सिद्धांत मकान के सभी कमरों पर सामान रूप से लागू होता है..

वायव्य वायु तत्व, आग्नेय अग्नि तत्व तथा कमरे का मध्य भाग आकाश तत्व को दर्शाता है.. आकाश तत्व अर्थात तत्व कमरे के मध्य को सदेव भारमुक्त तथा साफ़ सुथरा रखना चाहिए.

अब घर के मुख्यद्वार, रसोईघर, जल ईत्यादी के बारे में जानकारी अगले लेख में देखते है.

सरिता कुलकर्णी






Friday, August 10, 2012

वास्तु के अनूठे रहस्य ,भाग्य और शेयर बजार / Vaastu and Share Bazaar

वास्तु के अनूठे रहस्य..

वास्तु, भाग्य और शेयर बजार....

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भाग्य मनुष्य के जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. हमारे अथक प्रयासों के बाद भी हमें मनचाही सफलता नहीं मिलती. कहा जाता है –

“भाग्यं फलती सर्वदा न च विद्या न च पौरुषम” 


ना केवल मनुष्य अपितु प्रत्येक वास्तु पर पंचतत्वो का नियंत्रण है. जब हम किसी कार्य को करते है और अपना सौ प्रतिशत झोंक देते है फिर भी हमें वो फल नहीं प्राप्त हो पाता जो हम चाहते है या हमें मिलना चाहिए. ऐसा तो सभी को अनुभव हुआ होगा की बचपन में जब हम अपने मित्रों के साथ पढते हे किसी परीक्षा की तयारी करते है तो उतना ही समय हम भी देते है जितना वो देता है उतना ही श्रम हम करते हे जितना की वो. फिर ऐसा क्या हो जाता है की किसी कारण वो हमसे आगे निकल जाता है और हम पीछे रह जाते है. ये खयाल तो उसे ही आयेगा जिस पर गुजरती है जो पीछे रह जाता. फिर एक समय बाद हम ये कह कर छोड देते है की भाग्य में ही नहीं था यार... है न

साधनाओ के माध्यम से तो हम इस कमी को निश्चित भर सकते हे. लेकिन हर कोई साधना नहीं कर पाता. ये भी तो उतना ही सच है. तो ऐसे में हम कुछ विशेष बातो का ख़याल रख के कम से कम सावधानी बरत ही सकते है.

आजकल अधिकतर व्यक्ति अपनी जमापूंजी शेयर में लगाते है. जो व्यक्ति शेयर में पूंजी लगाना चाहते है उन्हें सबसे पहले ये देखना चाहिए की वे किस तत्व के पदार्थ से लाभप्राप्ति कर सकते है तब उसी पदार्थ को निर्मित करने वाली कंपनी के शेयर आदि ले लेता है तो उसे लाभ मिल सकता हे अन्यथा परिणाम तो आप जानते ही है...

इसका निर्धारण हम राशियों से कर सकते है.

1) मेष, सिंह और धनु राशियाँ अग्नि तत्व से संबंधित है. उन्हें अग्नि तत्व के पदार्थो से लाभ हो सकता है जैसे बिजली के उपकरण, मशीने, लकड़ी इत्यादि.

2) वृषभ, कन्या और मकर रशिया भू तत्व से संबंधित है तो सड़क निर्माण, खदानों का कार्य, खेती कार्य से लाभ
मिल सकता है.

3) मिथुन, तुला और कुंभ राशि वायु तत्व से संबंधित है तो पंखा, कूलर, स्प्रे, अगरबत्ती, इत्र, हवाई जहाज, पतंग, गुब्बारे इत्यादि से लाभ हो सकता है.

4) कर्क, वृश्चिक और मीन राशि जल तत्व से संबंधित है तो द्रवीय वस्तुओ के निर्माण से व व्यापार करने से लाभ होगा जैसे कोल्ड ड्रिंक्स, दूध, घी, तेल, पारा, शराब, आइसक्रीम इत्यादि.

जब भी ग्रह जातक के भाग्य में भ्रमण करते हे तो वे उसका साथ निश्चित देते है. अब यह जातक पर निर्भर हे की वह कितना चाहता है? भाग्य का सहयोग हमारे जीवन के अभावो को कम करता है. लेकिन हम कितना भाग्य को अपने प्रति आकर्षित करते है? अब चुनाव तो हमें ही करना है की हम समय को कोसने में व्यर्थ करे या इन बातो को ध्यान में रख कर सही चयन कर निश्चित सफलता प्राप्त करे.

सरिता कुलकर्णी































Sunday, July 15, 2012

प्राणशक्ति का महत्व – ७


प्राणशक्ति का महत्व –  ७

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    विगत लेख में प्राण चक्र पर बात करते हुए कई सारे प्रश्न सामने आये जैसे ध्यान क्रिया पर, मंत्र जाप या एकाग्रित चित्त अवस्था, तन्द्रा अवस्था या साधनात्मक अनुभूतियो कों कित पत बाटना चाहिए. आदि इन सबके मूल में प्राण शक्ति ही तो कार्यरत है है.

प्राण चक्र पर मन की एकाग्र करने के पश्चात शरीर की किसी वेदना तक का अनुभव नहीं होता


  प्राण तत्व कों अब तक देखा नहीं गया.. उसे सुंघा भि नहीं गया...मगर उसका मूल्य और महत्व हमें ज्ञात है की बिना प्राण तत्व के हम जी नहीं सकते, जीवन स्पंदनयुक्त नहीं हो सकता..शमशानवत होता है जब तक हम इस् बात कों नहीं समझेंगे तब तक हम गतिशील है कभी धन के पीछे तो कभी प्रियसी तो कभी पत्नी के पीछे पागल है...कभी रूप और योवन के, तो कभी ऐश्वर्य के पीछे पागल है. अपनी नौकरी या व्यापार के पीछे
अपनी लाश कों कंधे पर ढों रहे है..चार लोग जो आपकी लाश लेके जा रहे है और अपमे कोई अंतर नहीं है..और ये ऐसा ही चलता रहेगा..चल रहे है शमशान की ओर...

अंतर आ सकता है.. आ सकता है अगर अप उस प्राण तत्व कों अपने आप में जाग्रत करे, उस चेतना कों जाग्रत करे, उस गुरु अपने ह्रदय में स्थापित करे, और उस गुरु कों स्थापित करने के कोई मंत्र नहीं कोई प्रार्थना नहीं, स्स्तुती अनहि ,सुगंध का कोई मेहेत्व नहीं होता उसे केवल सराहा जाता है महसूस किया जाता है..गुरु भि एक सुगंध की भाँती है... महक है जो हमारे सामने होती है और उसको केवल एहसास ही किया जा सकता है... उस सुगंध कों आत्मसात कर सकते क्युकी वह प्रानेश्चेतना है...उस गुरु की सुवास कों इन आँखों वियोगी होगा पहला कभी निकल आँखों से चुभी क्योकि पुष्पों के माध्यम से नहीं होती. ये तब तक ही सम्भव है भाई, आप खुशनसीब है की आपको ऐसा अनुभव हो रहा है.. मै एक ही बात कहूँगी की ये बहुत अच्छा चिन्ह है, और अब इस् बारे में ज्यादा नही सोचना चाहिए और नाही किसी से चर्चा करनी चाहिए..
प्रयत्न पूर्वक जिस साधना का प्रण लिया है उसे पूर्ण करना चाहिए..बाकी ऐसे समय आतंरिकगुरु हमें किसी ना किसी रूप से संकेत दे ही देते है की आगे क्या कैसे करना चाहिए..

१. अपने साधनात्मक अनुभव नहीं बताये जाते क्युकी जिन किसी की दिव्यविभुतियो की हम पर ध्यानस्थ रूप में कृपा होती है वे रोषित हो सकते है..उनकी अवज्ञा करना उचित नहीं होता..

२. उनके निर्देश के बिना इसका उल्लेख किसी से नहीं करना चाहिए..

३. क्युकी जब हमें ऐसे अनुभव होते है तो, एक तो ये केवल वरिष्ट गुरु भाई बहनों के समक्ष ही खोले जाते है वो भी अत्यंत जरुरी हो या समतुल्य गुरुभाई बहनों से..

४. दूसरा इसे अपने अनुजो से संभव हो तो ना कहे... क्युकी दिव्य अनुभूतिया केवल दिव्य व्यक्ति ही अनुभूत कर सकता है.. जिसने दिव्यता अनुभव की हो केवल वही...

पंचतत्व में जल प्राणशक्ति से इच्छा शक्ति, मनःशक्ति की वृद्धि होती है और साथ ही होता है स्मृति में विकास. चित्त भी तुरंत एकाग्रित होता है..
हम व्यायाम करते है. प्रत्येक व्यक्ति के उसके व्यक्तिगत कारण होते है व्यायाम करने के..किसी को योगा, तो किसी को पैदल चलने का, तो किसी कों जिम, तो किसी कों तैरने का व्यायाम पसंद आता है. वैसे जो मन कों सबसे अधिक भाय वही सर्वोत्तम.

सरिता कुलकर्णी







Saturday, June 30, 2012

प्राणशक्ति का महत्व – 6


प्राणशक्ति का महत्व –  6

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सुक्ष्म शरीर का प्राण शक्ति से संबंध अत्यधिक गहरा है. पञ्च तत्वों से बनी ये काया और विस्मय में डाल देने वाले इस अन्तः शरीर के रहस्य, सच सोचने पर विवश कर देते है की कैसे बाह्य और आतंरिक ब्रह्माण्ड का संजोग इस नश्वर काया का कायापलट कर हमें अपनी आतंरिक सीम शक्तियो से परिचित करवा सकता है. सुक्ष्म शरीर का अनुभव अपने आप में अलग ही है..ये तो वही जाने जिसने इसको अनुभव किया हो.

कई बार ऐसा भी देखने में आया है की व्यक्ति कई समय से सूक्ष्म शरीर द्वारा विचरण कर लोक लोकान्तरो में आ जाते है परन्तु वे स्वयं नहीं जानते होते है की इस् प्रक्रिया कों सूक्ष्म शरीर विचरण क्रिया कहते है. और ऐसा उनसे हो रहा हो रहा होता है..सामान्यतः इसे स्वप्न का नाम देकर भूल जाया करते है..

वास्तव में देखा जाए तो जब हम अंतर में झाँकने की क्रिया आरम्भ करते है तो प्रतिक्रियाये हमें कुछ इस रूप में ही मिलती है..अंतर झाँकने की क्रिया अर्थात हम स्थूल चक्षुओ से प्राण शक्ति का क्षय बाह्य भौतिक क्रिया में कर डालते है..कहा कैसे इस् बारे में विगत लेखो में पढ़ चुके है. परन्तु जब हम इस बाह्य क्रिया कों नियंत्रित करने में सक्षम हो जाते है तो अनुभवो और गुह्य गोपनीय रहस्यों का पिटारा हमारे सामने निद्रावस्था में स्वप्नों के माध्यम से, ध्यानावस्था में, तन्द्राअवस्था में होने लगता है.

मूलतः ये नियंत्रण क्रिया ही तो सर्वाधिक दुष्कर कार्य है परन्तु अभ्यास और जिद्द से क्या कुछ संभव नहीं.. विषय अंतर करते हुए एक घटना के बारे में आज खुलासा करने का मन हो रहा है..आरंभिक समय में जब मै आत्मा आवाहन का अभ्यास किया था तो मैंने महसूस किया चंद दिनों बड़ी ही आसानी से हो गया और फिर बाद में उसे थोडा हलके में लिया.. नतीजा ये हुआ की दूसरे दिन कुछ सिर्फ शिथिलता ही हाथ आई... यही हाल तीसरे और चौथे दिन भी हुआ..मै सोच में पड गई की आखिर अब तक जो प्रक्रिया इतनी आसानी से मुझे हो रही थी जैसे इसकी मै लंबे समय से अभ्यस्त हू तो अचानक अब क्या हुआ?..
 
अनुभव या प्रतिक्रिया बंद ? क्यों ?

फिर धीरे एक दो दिनों में मंथन कर उस काल खंड में जाके मैंने आकलन किया की कहा चूक हुई उस के पश्चात ज्ञात हुआ की जब आप इतर योनियों से संपर्क स्थापित करते है तो आप कों बहुत सचेत, सरल और सतर्क बने रहना पड़ता है.. हम भले ही स्थूल रूप से उनसे संपर्क में आते है पर वे तो हमारे सूक्ष्म रूप से ही समपर्क करती है ना तो उनके लिए ये बहुत आसान है हमारे मनोमास्तिस्क कों और प्राणशक्ति के स्तर कों भांप लेना.. हर बार कर ले ये भी संभव नहीं परन्तु वे चाहे तो उस द्वार में भिड़ सकती है..उनसे कोई खेल नहीं चल सकता नहीं तो आपका खेल बनाने में भी देरी नहीं लगेगी..

एक मुख्य कारण तो ये था की उस समय साधनाओ में काफी विराम अंतराल हो गया था..परिणाम स्वरुप एसी प्रक्रियाओं में आप का कमजोर पक्ष अर्थात संचित प्राण शक्ति और एकाग्रचित्तता में कमी व्यक्त हो जाती है..

तंत्र में बीच का रास्ता नहीं है..
शक्ति या तो आप पर हावी हो जाए... या आप शक्ति पर हावी हो जाये..
केवल दो पक्ष ही हो सकते है...
और अगर आप ने शक्ति कों हावी होने दिया तो समझो आप गए...
या इसकी विपरीत स्थिति आपको विजैता बनाती है.

उस से भी ज्यादा मुश्किल स्थिति अगर कुछ है तो उस शक्ति कों शरीर में स्थान देना और उसे पचा लेना..उसे धारण कर लेना..

तो बात ये है की एकाग्रता, संवेदनशीलता और सजगता हमारे इस पथ सुगम करती है परन्तु हमारी  मूल प्रानेश्चेतना और चेतना शक्ति का स्तर ही हमारी सफलता का मापदंड बनते जाते है. यहाँ प्रवृत्ति और आकर्षण का भी गहन समबन्ध है. कैसे भी आवाहन क्रिया हो हमारी वृत्ति अनुसार हमें दीर्घ फल प्राप्त होते है...

जितनी तीव्र पैशाचिक योनी (विषय - बेताल सिद्धि) कों सिद्ध आप करना चाहते हो उतना बड़ी आपकी पचाने की या धारण करने का सामर्थ्य भी होना चाहिए क्युकी ये कोई मजाक नहीं.. ऐसा ना होने पर परिणाम बड़े भयंकर हो सकते है. बिजली का उदाहरण देते हुए कहा था की मेक्सिमम हाय वोल्टेज कों होल्ड करने के लिए होल्डर भी उतना ही सोलिड होना चाहए अन्यथा विस्फोट हो सकता है....खेर...अब तो आप कों अंदाजा लग ही गया होगा..

एक साधक बहुत सजग होता है. उसकी इन्द्रिय अत्यंत सतर्क होनी चाहिए.. आतंरिक और बाह्य दोनो ही रूप से..

साधनाए सतत करते रहने कोई भौतिक रूप में तभी के तभी दिखने वाले चमत्कार नहीं हो जाते अपितु धीरे धीरे हौले से आप कों अपनी असीम क्षमताओं कों जानने का अवसर प्राप्त होते जाता है..क्युकी सब कुछ अंतर निहित ही तो है....

क्रमशः

सरिता कुलकर्णी


Sunday, May 20, 2012

प्राणशक्ति का महत्व – ४




प्राणशक्ति का महत्व – ४ 

विगत लेख में हमने जाना की प्राण शक्ति का क्षय बाह्य रूप से किस प्रकार होता है परन्तु जिस प्रकार प्राण उर्जा का क्षय बाह्य रूप से होता है ठीक वैसे ही आतंरिक रूप से भी होता है..

प्राण उर्जा का सबसे ज्यादा क्षय इन्द्रियों द्वारा भी बराबर रूप से होते रहता है. इसके लिए हमें नियंत्रण हमारी इन्द्रियों पर रखना होगा.. प्राण उर्जा का व्यर्थ ही नष्ट होना अर्थात दुरुपयोग होना है. जिन इन्द्रियों द्वारा प्राण उर्जा का क्षय होता है उन्ही के द्वारा हमें उसे अंतर में समाविष्ट करने की कला कों भी सीखना चाहिए.

योग के पांच अंग – आसान, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान और अंत में समाधी जिनमे से तंत्र में तीन अंगों का मुख्य रूप से स्वीकार हुआ है – प्रत्याहार, ध्यान और समाधी.

प्रत्याहार की सर्वप्रथम अनिवार्य बिंदु है की हम शक्ति कों व्यर्थ नष्ट ही ना होने दे.. जहा से भी शक्ति का संचय करते बन सकता है करे..

समस्त इन्द्रियों में सर्वश्रेष्ठ और सर्वाधिक महत्वपूर्ण इन्द्रीय है ‘नेत्र’..जिस प्रकार नेत्र बाह्यजगत में खुलते है उसी प्रकार अंतरजगत में भी खुलते है.

जिस व्यक्ति के नेत्र ना हो हम उस से सहनुभूति और दया का भाव रखते है. परन्तु ऐसे व्यक्तियों की बुद्धि आती प्रखर होती है.  और देखिये ना कितनी साधारण परन्तु गुढ़ बात है की उसे कोई ज्यादा संघर्ष करने की जरुरत ही नहीं अंतर जगत में प्रवेश पाने के लिए..

भले ही उसके बाह्य जगत कों देखने के पटल हमेशा के लिए बंद हो गया हो परन्तु अन्तिक जगत के लिए बड़ी आसानी से खुल सकता अगर वह चाहे तो..

जिस प्रकार उनकी बुद्धि प्रखर होती उसी प्रकार उनकी ग्राह्य शक्ति भी प्रबल होती है.. इसका कारण है की उनकी एकाग्रता कानो पर और महसूस करने पर ज्यादा केंद्रित हो जाती है..

हम भी इस् का अभ्यास कर सकते है कुछ समय के लिए अपने आप कों नेत्रहीन मान कर हम भी ऐसा अभ्यास कर अपने इतर इन्द्रीयो कों प्रखर कर सकते है.

युद्ध और शस्त्र विज्ञान में इसका बहुत महत्व है.. अभ्यास के दौरान एक एसी स्टेज आती है जब आपकी आँखों पर पट्टी बाँध कर शत्रु की क्रियाओं का भास लगाने हेतु आपके मन कों केंद्रित कर सशक्त बनाया जाता है.
क्युकी सबसे ज्यादा उर्जा का क्षय आँखों से ही होता है हम ना चाहते हुए भी इतनी सारी चीजे एसी करते है देखते है जिस से हमारे मनोमस्तिष्क पर द्रश्य अद्रश्य रूप से गहिरा प्रभाव पड़ता ही है.. बाकि सभी इन्द्रियों की अनुभूति कों कुछ काल में बिसर पद जाता है परन्तु आँखों देखि बाते भूले नहीं भूलती..जो कारण बनता है आकर्षण, संशय, द्वेष, घृणा जेसे दोषों का...

जब एसी स्थिति बनती है हमारी पूरी उर्जा इस् क्रिया कों पूर्ण करने में लग जाती है...जिस प्राण उर्जा कों संचित करने में कडा परिश्रम करते है और लंबे समय बाद अर्जित कर इस् प्रकार खर्च कर देते है तो मिनटों का समय तक नहीं लाता खर्च होने में.

साधना के माध्यम से हम प्राणशक्ति का संघटन और उचित विघटन कर सकते है.
 
क्रमशः

सरिता कुलकर्णी











Friday, April 20, 2012

प्राणशक्ति का महत्व – 3




प्राणशक्ति का महत्व – ३

आज हम बात करेंगे की प्राणशक्ति के उन पहलुओ की जो जानना साधक के लिए अनिवार्य और लाभप्रद है. इन पहलुओ कों समझने से कैसे वो अपने साधनात्मक ऊर्जा और प्राणशक्ति कों संचित कर साधना जगत में अपना स्थान दृढ़ कर सकता है.

* प्राणशक्ति कों कैसे महसूस किया जाए ?      

प्राणशक्ति और प्राणमाय शरीर कों हम हमारे शरीर के अत्यंत ही महत्वपूर्ण अंग से महसूस कर सकते है
**चक्षु** बाह्य चक्षुओ से आप भालिभाती अंदाज लगा सकते है की व्यक्ति में प्राणशक्ति का क्या स्तर है. उस का आतंरिक स्वरुप जान कर प्रनेश्चेतना प्राणशक्ति का अनुमान लगा सकते है. प्राणमय शरीर की झलक हमें आँखों में मिलती है. आंखे शरीर का सर्वाधिक जीवंत अंग है. दूसरा कोई नहीं. अगर आँखों कों छोड़ दिया जाय तो शेष शरीर मृत ही महसूस होता है.

अगर आँखे बुझी बुझी सी तेजहीन हो तो समझ लीजिए प्राणमय शरीर निर्बल है. वह दूसरी ओर अगर आँखों में तेज है प्रखरता है स्थिरता है तो प्राणमय शरीर स्वस्थ एवं शक्तिशाली है.

सबसे सशक्त माध्यम भावो कों व्यक्त करने का अगर कोई है तो वे है आँखे. आंखे ही तो भावो कों व्यक्त करती है. और भाव प्राणमय शरीर से उत्पन्न होते है. शरीर की आतंरिक घटनाओं का खुलासा आँखों से होता रहता है.

* प्राण शक्ति का क्षय कैसे होता है ?

जब आप किसी व्यक्ति के निकट जाने पर आप जम्हाई लेने लगे, थकान महसूस हो, अलस्या अनुभव करने लगो तो हमें समझ लेना चाहिए की उस में प्राणशक्ति कम है और अनजाने में अदृश्य रूप से वो हमसे प्राण शक्ति ग्रहण कर रहा है.

मदिरापान करने वाले, नीच कर्म करने वाले, इधर की उधर बुराई गाने वाले, पाखंडी ढोंगी, जुआ खलेने वाले व्यक्तियो में भी प्राणशक्ति कम होती है व्यसनास्कत फिर वह स्त्री रत ही क्यों ना हो व्यक्तियों में भी प्राणशक्ति कम होती है. क्युकी काम क्रिया में सर्वाधिक ऊर्जा का क्षय होता है.

दीर्घ काल रोगी में भी प्राणशक्ति कम होती है. वही किस रोगी के पास जाने पर आप अधिक समय बैठ पाए तो समझना चाहिए की वो जल्द ही रोगमुक्त होगा अर्थात उसकी प्राणशक्ति संचित करने की क्षमता तेजी से होती है.
जिन के पास बैठने की इक्शा न हो..और उसके विपरीत जिनके पास आपको सर्वाधिक जाने का मन होते रहता हो उनके सानिध्य में समय व्यतीत कैसे हो जाए पाता ना चले उनमे प्राणशक्ति बहुत अधिक होती है.

* किन जीवो में प्राणशक्ति का वास सर्वाधिक होता है ?    

प्राणशक्ति का वास सबसे अधिक उन जीवो में या आत्माओं में होता है जो निर्मल, निश्छल और निष्पाप होती है. जड़ योनी अर्थात पेडो पौधों में भी प्राणशक्ति का वास होता है. वैज्ञानिक भाषा में कार्बन डायोक्साईड और ओक्सिजन के महत्व के बारे में अलग से बताने की आवश्यकता नहीं. कुछ वृक्ष जैसे पीपल, बरगद, अर्जुन, हर्रे में प्राण शक्ति सर्वाधिक होती है. जितना पुराना वृक्ष होगा उसमे उतनी अधिक प्राणशक्ति होगी. पुराने वृक्षों की छाया में थका या बीमार व्यक्ति शीघ्र आराम प्राप्त करता है. दमा अथवा श्वास के रोगियों के लिए ऐसे वृक्ष अमृत समान है.

आप अगर किसी पुराने वृक्ष के तने कों दोनो हाथों से पकड़ कर कोई याचना करेंगे तो आपको एक कंपन महसूस होगा ऐसा होना स्वाभाविक भी है क्युकी वृक्ष भी महसूस करते है वृक्षों में सभी प्रकार की प्राणशक्तियो का वास होता है. भले ही वे जड़ योनी है, हमारे समान आँख नाक कान हाथ पैर इत्यादि नहीं परन्तु उनमे भी प्राणशक्ति सूक्ष्म अतिसूक्ष्म रूप से विद्यमान है.  

इन महीन किंतु सूक्ष्म बातो का हमारे साधनात्मक पक्ष से गहन समबन्ध है. एक साधक जितना भावुक होता है उतना और कोई नहीं. क्युकी वे भाव ही तो है जो हमें सक्षम बना कर साधना में हमें सफलता प्रदान करते है. साधना का आरंभ भाव ही तो है और अंत भी......

क्रमशः

सरिता कुलकर्णी














Thursday, April 12, 2012

प्राणशक्ति का महत्व - 2

प्राणशक्ति का महत्व – २

विगत लेख में हम ने प्राण शक्ति के मूल स्त्रोतो के बारे में पढते हुए सौर प्राणशक्ति और वायु प्राणशक्ति के बारे में जाना. इसके आगे बढते हुए भू-प्राणशक्ति के बारे में थोडा सा जानेंगे. कच्ची जमीन और पानी में भीगी हुई मिटटी में प्राणशक्ति सर्वाधिक होती है. नंगे पैर जमीन पर चलने से पुरे शरीर को प्राणशक्ति स्वतः प्राप्त होती है.
भूमि पर इस् प्रकार विचरण करने से शरीर स्वस्थ और रक्क्त स्वच्छ होता है. नेत्र ज्योति में भी विकास होता है. ह्रदय रोग के विकारों की शंका भी न्यून हो जाती है. साधारण जनमानस में प्रातः उद्यान में घूमने का प्रचलन है. उस में से आप देखेंगे कई लोगो को नंगे पैर बगीचे में टेहेलते हुए. टलने के पश्चात ही वे एक नयी तरोताजगी महसूस करते है और इसका कारण है की उन का शरीर नवीन प्राणशक्ति से भर जाता है.

विशेष प्रशिक्षण प्राप्त कुछ व्यक्ति ऐसे भी है जो भूमि के अंदर अपने आप को बंद कर हफ्तों तक बैठे रहते है और जीवित भी रहते है. इसका रहस्य ये है की शरीर की त्वचा के सुक्ष्म छिद्र भू प्राणशक्ति को ग्रहण करते रहते है और इसी कारण वे जीवित भी रहते है. इसके अतिरिक्त भूक प्यास का भी उन्हें एहसास नहीं होता क्योकि भू प्राणशक्ति में वे सब तत्व विद्यमान है जो जीवन के लिए आवश्यक है.

अधिकतर जीर्ण शीर्ण पुराने मंदिरो में प्रतिमाये गर्भगृह में ही स्थापित मिलती है क्यों? क्योकि वहा प्राणशक्ति प्रचुर मात्रा में विद्यमान रहती है. इसका मुख्य कारण यह है की उस स्थान पर साधना सिद्धि कर उसे जाग्रत किया गया है और आज भी वे जाग्रत अवस्था में है. भू-प्राणशक्ति, विचारशक्ति और इच्छाशक्ति को भी प्रबल करती है.
इन सब बिन्दुओ को जानने के पश्चात हम साधना स्थली के बारे में अच्छे से अध्ययन कर अपनी साधनाओ को संपन्न कर सकते है. ऐसा क्यों है की शक्ति पीठो पर बैठ के साधना में सफलता प्राप्त होती है बजाय इसके की

हम घर बैठ के उसे करे तो सफलता नहीं मिलती ?

क्योकि प्रत्येक शक्तिपीठ प्राणशक्ति से आपूरित है. वही घर में अनेक सदस्य और उनकी बिखरी मानसिकताओ का वास आपको मनोकुल वातावरण देने में असमर्थ होता है. इसलिए साधना स्थली में दूसरे व्यक्ति का वास वर्जित होता है क्यों किसी और की प्राण उर्जा का स्वरुप कैसा है आपको ज्ञात नहीं ? आपके लिए अनुकूल है या नहीं.

साधना स्थली में आपके अतिरिक्त किसी और का वास सकारात्मक हे या नकारात्मक इस् को ज्ञात नहीं किया जा सकता और फिर एसी स्थति में साधना स्थली में नकारात्मक उर्जा अक्रष्ट होके वही रह जाती है. और आपके लिए समस्याए निर्मित करती है जैसे साधना ना करने का मन होना, साधना में बैठने के साथ ही मन का भटकाव तीव्र होना कु विचार आना, शरीर में दर्द होना इत्यादि.. इसलिए योग्य स्थान, योग्य वातावरण, शुद्ध सटीक मनोभाव और साधना करने की प्रबल इच्छा आपको सफलता का सोपान कराती ही है.

योग में जल प्राणशक्ति को सर्वोत्तम और सबसे महत्वपूर्ण माना गया है क्योकि सूर्य का प्रकाश, वायु, और भूमि इन तीनो के संपर्क में जल रहता है. इसलिए जल में इन तीनो की प्राणशक्तियों का सम्मिश्रण रहता है.
प्राण शक्ति की बात करते हुए प्राणायाम को बिसराया नहीं जा सकता. प्राणायाम शब्द मात्र से समझा जा सकता है की प्राण को प्राप्त करने के विविध आयाम “प्राणायाम”. जिस प्रकार प्राण का संबंध प्राण से है उसी प्रकार

ध्यान का संबंध मन से है. और इन दोनों का अस्तित्व साधना में अक्षुण्ण है.

साधना में प्राणशक्ति और मनःशक्ति से सम्बंधित सिद्धिया परम उच्च स्थान पर है उसी प्रकार साधक  को किसी भी साधना में सफलता प्राप्त करने के लिए भी अगर किसी मूल बिन्दुओ की आवश्यकता है तो वो मनःशक्ति और प्राणशक्ति ही है. और इसीलिए कहा गया है की सभी के मूल में प्राण है..

इन से संबंधित सिद्धिया -  * प्राणजन्य *मनोजन्य *आत्मजन्य है.

इन सिद्धियो में आत्मजन्य सिद्धि अत्यंत ही दुर्लभ है. अत्मजन्य सिद्धि की प्राप्ति किसी विरले को ही हो सकती है परकाया प्रवेश, आकाश गमन, जन्म जन्मान्तरो का ज्ञान, रूप परिवर्तन आदि इसी के अंतर्गत आती है.
* दूसरों को अपने अनुकूल करना
* जड़ वास्तु को प्रभावित करना और अपने आदेश पालन हेतु बाध्य करना
* स्व शरीर पर आयु का प्रभाव नहीं पड़ना
* निरंतर स्वस्थ और निरोगी बने रहना
* मीलो दूर बैठे व्यक्ति से संपर्क स्थापित कर उसके मन का भेद जान लेना या उसके मन में विचार को डालना
* वशीभूत सम्मोहन करना
* भविष्य वर्तन

प्राण जन्य सिद्धियो से सभी कुछ संभव है. अप अपने अंतर मन और अंतर प्रानेश्चेतना से इन सभी बातो को कर ससकते है इस् अच्छी बात भला क्या हो सकती हे की आपको किसी सहारे की जरुरत नहीं अप स्वयं सक्षम होते हे अपने अभीष्ट को प्राप्त करने के लिए. परन्तु यह इतना आसान नहीं जितना पढ़ने पर प्रतीत हो रहा है. पर असंभव भी नहीं. और यह सब बिना योग्य गुरु के कर पाना असंभव है. केवल गुरु के आशीर्वाद से एसी मनःस्थिति पायी जा सकती है.

क्रमशः

सरिता कुलकर्णी




































Sunday, March 25, 2012

प्राणशक्ति का महत्व - १

प्राणशक्ति का महत्व - १ ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

आतंरिक साधना जगत इतना विशाल और विस्मयकारी है की कल्पना करना भी एक कल्पना मात्र ही है. परन्तु जो कल्पना में है उसका अस्तित्व भी निश्चित कही ना कही विद्यमान है. क्युकी हमारा सुक्ष्म मन विचरण करते हुए उन कल्पनाओं का साकार रूप प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से देख आता है.   प्रत्येक साधना में कुछ ऐसे तथ्य या आवश्यक बाते होती है जो अनिवार्य है. जिन के बिना हम यथोवान्छित फल प्राप्ति नहीं कर सकते. उन मूल तथ्यों में प्राण शक्ति का स्थान अलेखनीय है.

प्राण शक्ति, मनःशक्ति के अतिरिक्त एक और शक्ति है - आत्म शक्ति है .शरीर में आत्मा और उसकी शक्ति स्वतन्त्र है. प्राणशक्ति और मनःशक्ति की सञ्चालन व्यवस्था आत्मशक्ति द्वारा ही होती है. और उसी के द्वारा दोनों शक्तिया शरीर में क्रियाशील और संचालित रहती है.

योग तंत्र साधना इन्ही तीनो शक्तियों का योग ही तो है. क्रमानुसार प्रथम प्राणशक्ति, फिर मनःशक्ति और अंत में आत्म शक्ति की साधना संपन्न की जाती है.

प्रत्येक व्यक्ति में विभिन्न शक्ति तत्त्व का अस्तित्व भिन्नक होता है. इसिलए जब व्यक्ति साधना मार्ग पर अग्रसर होता है तो सफलता के अभीप्राय प्रायः भिन्न हो जाते है. किसी को बहुत ही कम समय में तो किसी को वर्षों तक कोई अनुभव नहीं होता.

तो क्या इसका अर्थ ये हुआ की उनमे प्राण शक्ति कम है? इसके बहुत से कारण हो सकते है. जैसे हमने जाना की आत्मशक्ति बाकि दोनों शक्तियो को संचालित करती हे तो जब आत्मशक्ति का विकास कम ज्यादा होता है तो इसका प्रभाव प्राणशक्ति और मनःशक्ति पर भी तो होगा.

प्राण शक्ति और मनःशक्ति के संयोग से ही एषणाओ और वृत्तियो का आविर्भाव होता है जिसका निष्कर्ष हे ज्ञान, वैराग्य और विवेक है.   

एक और मुख्य कारण मनोमय शक्ति का अस्तित्व. दूसरे लोको की आत्माए तो प्राण शक्ति की अधिकता के कारण ही किसी एक मंडल से दूसरे मंडल में प्रवेश कर पाती है और प्रबल मोनोमय शक्ति के द्वारा ही अपने मनचाही या पूर्व काया में प्रकतिकरण कर सकती है.

प्राण शक्ति के के तीन मुख्य स्त्रोत है – सौर प्राण शक्ति, वायु प्राण शक्ति और भू प्राण शक्ति. सूर्य से जो प्राण शक्ति प्राप्त होती है उसे सौर प्राण शक्ति कहते है. जिस से सम्पूर्ण शरीर को प्राश्चेतना मिलती है और मानव शरीर सर्वदा स्वस्थ रहता है. योगी गन सूर्य की ओर पीठ करके बैठते है ताकि मेरुदंड  स्थित केन्द्र ज्यादा से ज्यादा सौर प्राण उर्जा ग्रहण कर सके.

साधना के कुछ समय पश्चात शरीर में प्राण शक्ति के आविर्भाव के कारण हम महसूस कर सकते हे की जो मृत कोशिका है जिनका कोई सक्रीय उपयोग नहीं होता जैसे केश, नख इन में प्राण शक्ति का संचार होने के कारण इनमे वृद्धि होने लगती है. इसलिए योगियों की जटाए लंबी होती है. देखिये हमारे साथ के ऐसे कई व्यक्ति है जो वारंवार कहते रहते हे की मेरे केश ही नहीं बढते और ना ही नाख़ून तो जब तक प्राण शक्ति का अभाव हमारे शरीर में रहेगा यही स्थिति तो बनी रहेगी न.

योगियों का दीर्घ काल तक समाधी में रहने का कारण भी प्रचुर प्राणशक्ति ही है. जितनी प्राण शक्ति में अधिकता उतनी ही ध्यानस्थ होना या समाधी सरलता से लग जाती है.

वायु प्राण शक्ति अर्थात हमारा श्वास उच्छवास. जिसे दूसरे शब्द में हम जीवन शक्ति कह सकते है जिसकी वजह से हम जिवंत रह पाते है. वायु प्राणशक्ति वास्तव में सूक्ष्मतम प्राण वायु है जिसे ‘ईथर’ कहते जो सभी जगह व्याप्त है. संपूर्ण विश्व ब्रम्हांड में इसका अस्तित्व सामान है.

वायु ग्रहण करने की क्रिया सभी जगह एक सी ही तो है हम विश्व के किसी भी कोने में चले जाए सांस तो हर जगह लेते ही है सो इर्थर सब जगह विद्यमान है. वायु प्राण शक्ति अधिक से अधिक प्राप्त हो इसलिए सरल मार्ग जो योग मे बताया है वो है प्राणायाम. एक निश्चित लय ताल में प्राणायाम क्रिया की जाए तो वायु से हम प्राण शक्ति ग्रहण कर सकते है. इस क्रिया से सूक्ष्म शरीर भी विकसित होने लगता है.

यही कारण है की उच्च कोटि के संत अपने पैरों को नहीं स्पर्श करने देते और नाही अपने समीप आने देते है क्युकी उनकी आभा अती विकसित होती है परिणाम स्वरूप साधारण जनमानस को इसका त्रास हो सकता हे जैसे रक्तताप का उच्च या धीमा होना, बेचैनी होना, घबराहट होना इत्यादि.

प्राण शक्ति बढाने के लिए दोनों पैरों को पानी में डाल कर कुछ समय बैठना चाहिए. क्यों की जल में प्राण शक्ति होती है. जलिए प्राणी कैसे कुछ भी बिना खाए जल में जीवित रह जाते है क्युकी उन्हें प्राण शक्ति मिलती रहती है.
प्राण शक्ति बढाने के लिए प्राण मुद्रा को नियमित रूप से करते रहना चाहिए.
पंचमहाभूतो की भूमिका को कभी नकारा ही नहीं जा सकता क्युकी जितने भी प्रकृति के गुढ़ रहस्य है  इन्ही से तो संबंधित है. और प्रकृति को समझने के लिए हमें आतंरिक चक्षु की आवश्यकता होती है. जो प्राण शक्ति द्वारा संचालित हते है.

इन सब बिन्दुओ को देने का अभिप्राय केवल इतना की साधना करने के पूर्व हम हमारी आतंरिक संरचनाओं को अच्छी तरह से जान समझले ले तो इन बिन्दुओ पर एकाग्र चित्त होके साधना में और बेहतर रूप से अग्रसर हो सकते है. क्युकी हमें अगर लूपहोल्स पाता होंगे तो हम ठीक कर सकते है.

क्रमशः

सरिता कुलकर्णी






















Monday, March 5, 2012

प्राणशक्ति का महत्व


प्राणशक्ति का महत्व 


साधक के साध्य की पूर्ति साधना से ही हो सकती है. प्राण शक्ति को छोड़ कर अन्य सभी शक्तियाँ स्थिर शक्तियाँ है. अगर किसी शक्ति में गति हे तो वो है प्राण शक्ति. और जहा गति है वही जीवन बेला है. इसलिए जीवन को ही तो प्राण कहा है. आयु समाप्त हो जाना मतलब क्या होना ? मतलब प्राण समाप्त हो जाना. हम प्रायः कई लेख पढते रहते है जिनमे साधनाओ को साधने के लिए प्राण शक्ति आवश्यकता का उल्लेख होता है.

अब यहाँ प्रश्न उठता है की आखिर ये प्राणशक्ति हे क्या ? कितनी साधनाओ में लेखो में प्रयोगों में प्राण शक्ति का उल्लेख कीया हुआ होता है परन्तु अगर हम आधारभूत तथ्यों को नहीं समझेंगे तब तक उन बिंदु पर काम कैसे कर पायेंगे ? उन्हें कैसे सुधार पायेंगे ? जिनसे सफलता का सीधा संबंध है. अगर सफलता प्राप्त करनी हे तो पहले छोटी छोटी सूक्ष्म बातो को समझना पड़ेगा क्युकी त्रुटियाँ बड़े रूप नहीं वरन सुक्ष्म रूप से ही घटित होती हे और पीछे रह जाती हे असफलता.

तो किस शक्ति का विकास करना है हमें अपने आप में? किस पर मन केंद्रित करना है कौनसी वह उर्जा है जो हमें सफलता का सोपान कराती है.

प्राण शक्ति के दो सहयोगी रूप है धनात्मक और ऋणात्मक. प्राण को अगर सरल वैज्ञानिक भाषा में समझने का प्रयास करे तो वह स्पंदन है अर्थात सिकुडना और फैलना. इस क्रिया के संपन्न होने से जो विद्युत उत्पन्न होता है वह है प्राणशक्ति. शरीर का संबंध प्राण से है और प्राण का संबंध मन से और मन का संबंध आत्मा से है. प्राणों की गतिशक्ति से ही शरीर और मन को एक साथ गति मिलती है. और एक दूसरे से अनुप्राणित होने के कारण ये एक दूसरे से जुड़े हुए रहते है. और जब प्राण शक्ति का शरीर और मन से विच्छेद हो जाता है तो उसे हम मृत्यु के नाम से संबोधित करते है.

आज के लेख का शीर्षक “विविध गुढ विषयो में प्राणशक्ति का महत्व” इसलिए रखा है क्युकी शारीरिक विज्ञान के साथ साथ ऐसे कई अनेक विज्ञानं है जैसे वैदिक विज्ञानं, योग विज्ञानं, उर्जा विज्ञानं, तंत्र विज्ञानं, वास्तु विज्ञानं या आदि जितने भी तंत्र और आध्यात्म से संबंधित विज्ञान है उन सभी के मूल में है मन, प्राण और वाक्. अब आप सोच रहे होंगे की वाक् का यहाँ क्या तात्पर्य? वाक् के कई पर्याय है परन्तु यहाँ वाक् का अर्थ पदार्थ की मूल इकाई से है. इन तीन अर्थात मन, प्राण और वाक् के योग से जो विद्युत शक्ति जन्म लेती है उसे वैश्वानर अग्नि कहते है और इस् अग्नि का जो ताप है वह हमारे शरीर का ताप है जो बराबर हर अवस्था में एक सा बना रहता है. सो सभी के मूल में प्राण है.

जिस प्रकार भौतिक विज्ञान के मूल में विद्युत शक्ति है उसी प्रकार योग विज्ञानं के मूल में प्राण शक्ति है. जिस प्रकार विगत लेख में हमने जाना था की ऊर्जा विज्ञानं और वास्तु में धनात्मक ऋणात्मक उर्जा का उल्लेख था तो उनके मूल में भी तो प्राण शक्ति ही है जो हमारे प्राण शक्ति से जिस क्षण जुड जाती हे उस क्षण हम ये निर्णय ले पाते है की जो स्पंदन हम वातावरण में महसूस कर रहे हे वह सकारात्मक है या नकारात्मक.
प्राण ऊर्जा ब्रम्हांडीय उर्जा का अंश है. तो जब हम में प्राण उर्जा का विकास होगा उतना ही हम ब्रम्हांडीय रहस्यों को अनवरत करते चले जायेंगे और साधना जगत में हमारे लिए मार्ग प्रशस्त होता चला जाएगा.

प्राण शक्ति के के तीन मुख्य स्त्रोत है – सौर प्राण शक्ति, वायु प्राण शक्ति और भू प्राण शक्ति. जिसके बारे में मै आपको अगले लेख में जानकारी देने का प्रयास करुँगी.

अब प्रश्न आता है की प्राण शक्ति को कैसे बढ़ाया जाए उसका विकास किस तरह से किया जाए. इसे  योग तंत्र के मार्ग से भी की जा सकता है परन्तु वह थोड़ी क्लिष्ट और समय लेने वाली प्रक्रिया है और उस से सरल मार्ग तो **गायत्री मंत्र** जो शरीर के प्रत्येक रोम रोम को अनिर्णीत कर प्राण उर्जा के संचार से भर देता है. अब चेतना मंत्र के बारे में पहले ही इतना ज्ञानवर्धक विवरण लेख अनुराग जी दे चुके है की यहाँ कुछ लिखना शेष नहीं. जिन लोगों ने नहीं पढ़ा हो वे जरुर पढ़े. क्युकी यही तो आधार हे न साधना जगत में सफलता प्राप्त करने का. प्राण शक्ति को मुद्राओं द्वारा भी बढ़ाया जा सकता है. मंत्रो और मुद्राओं का जोड़ अविश्वसनीय परिणाम देता है.
 
क्रमशः

सरिता कुलकर्णी









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