प्राणशक्ति का महत्व
साधक के साध्य की पूर्ति साधना से ही हो सकती है. प्राण शक्ति को छोड़ कर अन्य सभी शक्तियाँ स्थिर शक्तियाँ है. अगर किसी शक्ति में गति हे तो वो है प्राण शक्ति. और जहा गति है वही जीवन बेला है. इसलिए जीवन को ही तो प्राण कहा है. आयु समाप्त हो जाना मतलब क्या होना ? मतलब प्राण समाप्त हो जाना. हम प्रायः कई लेख पढते रहते है जिनमे साधनाओ को साधने के लिए प्राण शक्ति आवश्यकता का उल्लेख होता है.
अब यहाँ प्रश्न उठता है की आखिर ये प्राणशक्ति हे क्या ? कितनी साधनाओ में लेखो में प्रयोगों में प्राण शक्ति का उल्लेख कीया हुआ होता है परन्तु अगर हम आधारभूत तथ्यों को नहीं समझेंगे तब तक उन बिंदु पर काम कैसे कर पायेंगे ? उन्हें कैसे सुधार पायेंगे ? जिनसे सफलता का सीधा संबंध है. अगर सफलता प्राप्त करनी हे तो पहले छोटी छोटी सूक्ष्म बातो को समझना पड़ेगा क्युकी त्रुटियाँ बड़े रूप नहीं वरन सुक्ष्म रूप से ही घटित होती हे और पीछे रह जाती हे असफलता.
तो किस शक्ति का विकास करना है हमें अपने आप में? किस पर मन केंद्रित करना है कौनसी वह उर्जा है जो हमें सफलता का सोपान कराती है.
प्राण शक्ति के दो सहयोगी रूप है धनात्मक और ऋणात्मक. प्राण को अगर सरल वैज्ञानिक भाषा में समझने का प्रयास करे तो वह स्पंदन है अर्थात सिकुडना और फैलना. इस क्रिया के संपन्न होने से जो विद्युत उत्पन्न होता है वह है प्राणशक्ति. शरीर का संबंध प्राण से है और प्राण का संबंध मन से और मन का संबंध आत्मा से है. प्राणों की गतिशक्ति से ही शरीर और मन को एक साथ गति मिलती है. और एक दूसरे से अनुप्राणित होने के कारण ये एक दूसरे से जुड़े हुए रहते है. और जब प्राण शक्ति का शरीर और मन से विच्छेद हो जाता है तो उसे हम मृत्यु के नाम से संबोधित करते है.
आज के लेख का शीर्षक “विविध गुढ विषयो में प्राणशक्ति का महत्व” इसलिए रखा है क्युकी शारीरिक विज्ञान के साथ साथ ऐसे कई अनेक विज्ञानं है जैसे वैदिक विज्ञानं, योग विज्ञानं, उर्जा विज्ञानं, तंत्र विज्ञानं, वास्तु विज्ञानं या आदि जितने भी तंत्र और आध्यात्म से संबंधित विज्ञान है उन सभी के मूल में है मन, प्राण और वाक्. अब आप सोच रहे होंगे की वाक् का यहाँ क्या तात्पर्य? वाक् के कई पर्याय है परन्तु यहाँ वाक् का अर्थ पदार्थ की मूल इकाई से है. इन तीन अर्थात मन, प्राण और वाक् के योग से जो विद्युत शक्ति जन्म लेती है उसे वैश्वानर अग्नि कहते है और इस् अग्नि का जो ताप है वह हमारे शरीर का ताप है जो बराबर हर अवस्था में एक सा बना रहता है. सो सभी के मूल में प्राण है.
जिस प्रकार भौतिक विज्ञान के मूल में विद्युत शक्ति है उसी प्रकार योग विज्ञानं के मूल में प्राण शक्ति है. जिस प्रकार विगत लेख में हमने जाना था की ऊर्जा विज्ञानं और वास्तु में धनात्मक ऋणात्मक उर्जा का उल्लेख था तो उनके मूल में भी तो प्राण शक्ति ही है जो हमारे प्राण शक्ति से जिस क्षण जुड जाती हे उस क्षण हम ये निर्णय ले पाते है की जो स्पंदन हम वातावरण में महसूस कर रहे हे वह सकारात्मक है या नकारात्मक.
प्राण ऊर्जा ब्रम्हांडीय उर्जा का अंश है. तो जब हम में प्राण उर्जा का विकास होगा उतना ही हम ब्रम्हांडीय रहस्यों को अनवरत करते चले जायेंगे और साधना जगत में हमारे लिए मार्ग प्रशस्त होता चला जाएगा.
प्राण शक्ति के के तीन मुख्य स्त्रोत है – सौर प्राण शक्ति, वायु प्राण शक्ति और भू प्राण शक्ति. जिसके बारे में मै आपको अगले लेख में जानकारी देने का प्रयास करुँगी.
अब प्रश्न आता है की प्राण शक्ति को कैसे बढ़ाया जाए उसका विकास किस तरह से किया जाए. इसे योग तंत्र के मार्ग से भी की जा सकता है परन्तु वह थोड़ी क्लिष्ट और समय लेने वाली प्रक्रिया है और उस से सरल मार्ग तो **गायत्री मंत्र** जो शरीर के प्रत्येक रोम रोम को अनिर्णीत कर प्राण उर्जा के संचार से भर देता है. अब चेतना मंत्र के बारे में पहले ही इतना ज्ञानवर्धक विवरण लेख अनुराग जी दे चुके है की यहाँ कुछ लिखना शेष नहीं. जिन लोगों ने नहीं पढ़ा हो वे जरुर पढ़े. क्युकी यही तो आधार हे न साधना जगत में सफलता प्राप्त करने का. प्राण शक्ति को मुद्राओं द्वारा भी बढ़ाया जा सकता है. मंत्रो और मुद्राओं का जोड़ अविश्वसनीय परिणाम देता है.
क्रमशः
सरिता कुलकर्णी
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